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अनोखी

कुछ जानी सी, कुछ अंजानी सी
कभी अपनी सी, कभी बेगानी सी
खुद की ही बातों को सुनते रहती
कुछ नये कुछ पुराने सपने बुनते रहती
अनोखी by Ankesh Kumar Shrivastava
हज़ारों दिलों पर राज है करती
फिर भी कभी नाज़ न करती
सबसे दूर अपनी दुनिया में रहती
कभी मुस्कुराती और कभी खुद में ही गुम रहती
कभी अपनी मोहब्बत के तराने सुनाती
कभी खुद को हीं पागल बुलाती
मेरे क़िस्सों को दिल से सुनती
मेरे लिए भी सपने अब वही है बुनती
जब गिरने लगूँ तो मुझे संभालती
अपनो से भी ज़्यादा मुझे है वो मानती
मेरे सारे दुखों और गमों को एक पल में गुम कर देती
अपनी मुस्कुराहट से हीं मुझे खुश कर देती
अंजानी सी, भटकी सी ज़िंदगी में आई मेरी
गमों से दूर मुझको करती आई मेरी
एक अंजाना रिश्ता सा है बन गया
जैसे कोई खोया फिर से वापस मिल गया
खुद लड़खड़ाती है पर मुझे संभालती है
खुद थक जाती है पर मुझे चलाती है
थोड़ी पागल सी, अकल की थोड़ी कच्ची सी
भले हीं बातें करे बड़ी, पर दिल से है वो बच्ची सी
चाहे जब भी पुकार लूँ उसे, रहती वो मेरे पास है
कल तक जो थी बेगानी, आज वही सबसे खास है...!!

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